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फली भेदक (हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा)

चना फली भेदक
चना फली भेदक यह कीट काबुली चना की उत्पादन क्षमता को बहुत प्रभावित करता है। इस कीट की गिंडारें फलियों के अन्दर घुसकर हानि पहुँचाती हैं। फलियों को ध्यान से देखने पर फलियों में छिद्र दिखायी देने लगते हैं। जब नर कीटों की संख्या (यौन आकर्षण जाल) में 4-5 तक कीट प्रति रात्रि प्रति टै्रप पहँचने लगे तो यह अनुमान लगाना चाहिए की अब कीट के नियंत्रण का समय आ गया है। खड़ी फसल 10-2 सूड़ी एक मीटर लम्बी प्रति पंक्ति में या प्रति 10 पौधों के मिलने लगे तो अविलम्ब फसल सुरक्षा उपायों की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।

एकीकृत कीट प्रबंधन
इस जाल में मादा मृदा कीट की कृतिम गंध रख दी जाती है जिससे नर कीट आकर्षित होकर फंस जाते हैं। जाड़े के उपरान्त जब 5-6 नर कीट लगातार फंसते रहे तो यह अनुमान लग जायेगा की इस कीट के प्रकोप का प्रारम्भ एक पखवारे के बाद होने की संभावना है। यह जाल आर्थिक दृष्टिकोण से अच्छा एवं सुगम भी है। अनुसंधानों से ज्ञात किया गया है कि एक हेक्टेअर के लिए 5-6 यौन आकर्षण जाल पर्याप्त हैं।
 

सस्य विधियों द्वारा कीटों का नियंत्रण
सस्य विधियों का अनुसरण करके कीटों द्वारा होने वाली हानि को बहुत सीमा तक कम किया जा सकता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि काबुली चना की समय से बुवाई की जाय। बुवाई का उचित समय मध्य अक्टूबर से नवम्बर का प्रथम सप्ताह उचित होता है। यह भी देखा गया है कि समय से बोई फसल में कीटों का प्रकोप नहीं हो पाता है क्योंकि समय से बाई गयी फसल कीटों के आने से पहले ही परिपक्व हो जाती है।
   

 

जैविक कीट नियंत्रण
अनुसंस्थानों से यह ज्ञात हुआ है कि चना फली भेदक कीट का जैविक नियंत्रण कुछ सीमा तक संभव है। इस प्रकार के नियंत्रण से पर्यावरण दूषित होने से बचाता है। साथ ही विभिन्न प्रकार की नियंत्रण विधियाँ एक साथ काम करती हैं।
प्रकृति में एक प्रकार का न्यक्लियर पॉलीहाइड्रोसिस विषाणु (एन.पी.वी.) पाया जाता है। जब यह विषाणु कीटों के भोजन के साथ उनके उदर में प्रवेश करता है।तो उसमें विभिन्न प्रकार की की बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती है एवं 3 -4 दिनों में कीट मर जाते हैं। यह विषाणु अब प्रयोगशालाओं में भी तैयार किये जा रहे हैं और प्रचुर मात्रा में बाजार में उपलब्ध हैं। जब इस विषाणु का खेतों में सामान्य कीट नाशकों के रुप में छिडकाव किया जाता है तो यह चना फली भेदक कीट में रोग उत्पन्न करता है एवं गिडार 2-3 दिनों के अन्तर्गत मर जाते हैं। परन्तु अन्य लाभकारी कीटों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है और ये अपना कार्य स्वतंत्र रुप से करते हैं।
आर्थिक हानि स्तर पर होने पर एन.वी.पी.वी. विषाणु के 250 गिडार तुल्य घोल को 400 लीटर पानी में मिलाते हैं। इसमें 2 कि.ग्रा. गुड एवं 40 मि.ली. नील या उजाला मिलाकर प्रति हेक्टेअर फसल पर छिड़काव करते हैं। एन.पी.वी. विषाणु के प्रयोग से दो प्रकार के लाभ होते हैं। इसका असर कीटानाशी जैसा ही होता है जिससे किसान स्वयं अपनी आंखों हानिकारक कीट को मारता हुआ देख सकते हैं, साथ ही साथ अन्य लाभकारी कीट बच जाते हैं।

कीटनाशी रसायन
चना फली भेदक का प्रकोप कम करने कि लिए कीटनाशी रसायन भी उपलब्ध हैं, जैसे इण्डोक्साकार्प-1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर, रैनेक्सीपर- 5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर, लेम्डा साईंहेलोथ्रिल- 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर, स्पाईनोसेड 0.4 -1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। परन्तु इनका प्रयोग तभी करना चाहिए जब चना फली भेदक कीटों की संख्या आर्थिक हानि की अवस्था से अधिक हो जाय। यदि संभव हो तो नीम की निबौली कस सत या नीम आधारित रसायनों का प्रयोग करना चाहिए। कुछ कीटनाशी जैसे एसीफेट 0.042% मोनोक्रोटोफास 0.04% आदि परजीवी को कम हानि पहुँचाते हैं।
नीम की निबौली का सत्
एक हेक्टेअर चना की फसल के लिए 400-500 लीटर कीटनाशी अथवा नीम की निबौली के सत का घोल पर्याप्त होता है।
नीम की निबौली का सत बनाने की विधि सुगम होती है। एक किलोग्राम हाथ से कुचली हुई नीम की गिरी को पतले मलमल के कपड़े में बांधकर 20 लीटर पानी में भिगो कर रातभर के लिए छोंड़। भिगोये हुए पदार्थ को अच्छी प्रकार से दबाकर निचोड़ लें। कठोर पदार्थ का प्रयोग न करें। इस 20 लीटर घोल में थोड़ा कपड़े धाने वाला साबुन घोल दें। इस तरह का प्रयोग के लिए तैयार कर लें एवं दवा छिड़कने वाली मशीन की सहायता से छिड़काव करें। एक हेक्टेअर के लिए 20 कि.ग्रा. निबौली से 40 लीटर घोल तैयार हो जाता है।
    चना फली भेदक के विरुद्ध कुछ लाभकारी कीटनाशी सूत्रकृमियों की खोज की गई है। ये सूत्रकृमि स्टेनरनेमा मसूदी और स्टेनरनेमा सीमाई  हैं। इन सूत्रकृमियों को प्रयोगशाला से आसानी से प्राप्त किया जा सकता है एवं इनका उपयोग धूल अथवा घोल के रुप में किया जा सकता है।
उपरोक्त बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि चना की फसल में सामयिक एवं एकीकृत कीट नियंत्रण कम खर्चीला, टिकाऊ और आसान होता है। इसका पर्यावरण पर बहुत ही कम दुष्प्रभाव पड़ता है। ऐसी कीट नियंत्रण विधियाँ छोटे एवं मध्यम श्रेणी के किसान आसानी अपना से अपना कर अधिक से अधिक लाभ अर्जित कर सकते हैं।